हास्य-व्यंग्य >> हुल्लड़ सतसई हुल्लड़ सतसईहुल्लड़ मुरादाबादी
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हुल्लड़ मुरादाबादी के द्वारा व्यंग्यपूर्ण एवं प्रेरणाश्रोत रचनाएँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हुल्लड़ जी जीवनधर्मी कला के रसात्मक मर्म और रचनात्मक रंजन के सिद्धहस्त
कलाकार हैं। केवल गुदगुदी पैदा करना या ठहाके लगवाना श्रेष्ठ कविता का
लक्षण नहीं है। उसमें जीवन की किसी ऐसी मर्मानुभूति का होना आवश्यक है जो
किसी व्यापक जीवन सत्य से परिचित करवाएँ। श्री हुल्लड़ जी के दोहे खूब
हँसाते हैं किन्तु अपनी फलक्षुति में पाठक या श्रोता को एक ऐसे आत्म-सत्य
के सम्मुख खड़ा कर देते हैं जहाँ वह समस्या पर गंभीर चिन्तन के लिए विवश
हो जाता है। हुल्लड़ जी समसामयिक परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपों,
विषमताओं और विकृतियों पर बेधक व्यंग्य के साथ हास्य भी उत्पन्न करते हैं।
यह उनकी प्रस्तुति का कौशल है कि लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते हैं।
उन्हीं के माध्यम से वे ऐसे प्रश्न भी खड़े कर देते हैं कि श्रोता या पाठक
करुणा, उद्विग्नता, आक्रोश, ग्लानि, वितृष्णा जैसे भावों से उद्वेलित होकर
विचार करने के लिए विवश हो जाता है।
जितनी किरपा होत है उतती मिले सहाय
अपने दम से आदमी कुछ भी न कर पाय
भीख माँगता रात दिन धरती का इन्सान,
इसीलिए बहरे हुए दीन बन्धु भगवान
देती है माँ शारदा, जिसको कृपा प्रसाद,
छू न पाता तब उसे कोई भी अवसाद
मिला ख़ज़ाना पर नहीं समझा उसका राज
क्यों तू नकली पत्थरों का रहता मोहताज
भीतर के आनन्द का क्यों करते अपमान
अब भी तुमको चाहिए बाहर का सम्मान
जो सुख में हरषै नहीं, वह दुःख में क्यों रोय
फिर ऐसे इन्सान का, क्या कर लेगा कोय
अपने दम से आदमी कुछ भी न कर पाय
भीख माँगता रात दिन धरती का इन्सान,
इसीलिए बहरे हुए दीन बन्धु भगवान
देती है माँ शारदा, जिसको कृपा प्रसाद,
छू न पाता तब उसे कोई भी अवसाद
मिला ख़ज़ाना पर नहीं समझा उसका राज
क्यों तू नकली पत्थरों का रहता मोहताज
भीतर के आनन्द का क्यों करते अपमान
अब भी तुमको चाहिए बाहर का सम्मान
जो सुख में हरषै नहीं, वह दुःख में क्यों रोय
फिर ऐसे इन्सान का, क्या कर लेगा कोय
समर्पण
(सबको रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं
होती) इस युग के तुलसीदास रामायण सीरियल के प्रणेता स्वर्गीय श्री
रामानन्द सागर को श्रद्धा
सहित
-हुल्लड़ मुरादाबादी
भूमिका
हास्य रत्न श्री सुशील कुमार चड्ढ़ा अर्थात् हुल्लड़ मुरादाबादी
हास्य-व्यंग्य विधा को स्थापित हस्ताक्षर और हिन्दी काव्य मंच के जन प्रिय
श्रृंगार हैं आपकी कविताओं के सात पुस्तकालय संस्करण अब तक प्रकाशित हो
चुके हैं जिनमें सृजनशील प्रतिभा के क्रमिक विकास और संचेतन संवेदनशीलता
की तिरप उदग्रता का पुष्ट प्रमाण मिलता है श्री हुल्लड़ मुरादाबादी
सम्भवत: हिन्दी के प्रथम हास्य कवि हैं जिनकी हास्य व्यंग्य कविताओं का
एच.एम.टी. कम्पनी ने एल.पी. रिकार्ड बनाया। हँसी का खजाना लुटानेवाला यह
रिकार्ड इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके बाद इसी कम्पनी ने हुल्लड़ के ऑडियो
कैसेट भी रिलीज़ किए। यह रिकार्ड और कैसेट इतना समय गुज़र जाने के बाद भी
आज के दौर में भी जन-जन की जुबान पर है। श्री हुल्लड़ जी फिल्म में भी एक
सफल गीतकार और कुशल अभिनेता के रूप में अपना परिचय दे चुके हैं। यह उसकी
बहुआयामी प्रतिभा और जन्मजात कला सिद्धि का प्रमाण है।
भारत के कोने कोने में तो हुल्लड़ जी की रचनाएँ सुनी ही जाती हैं। अमेरिका, कनाडा़, आस्ट्रेलिया, बैकांग, हाँगकाँग तथा इंग्लैण्ड जैसे देशों में भी उन्हें मुक्त कण्ठ से सराहा गया है हास्य व्यंग्य लेखन की विशिष्टताओं और अन्तराष्ट्रीय लोकप्रियता के कारण ही हुलड़ जी को काका हाथरसी पुरस्कार, उज्जैन का टेपा पुरस्कार और इक्कीस हज़ार के अट्टाहस शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया है। ये उपलब्धियाँ हुल्लड़ जी के व्यक्तित्व की विलक्षणता को प्रमाणित करती हैं। हास्य मानव जीवन के व्यक्तिव्य की दुर्लभ उपलब्धि है। आज के आपाधापी और तनाव भरे जीवन में कुण्ठाग्रस्त मानसिकता को हँसने के अवसर उपलब्ध ही नहीं हैं, जो लोग हँसने का अभिनय करते हैं उसका संबंध तन-मन से नहीं होता। अन्तर्मन से उद्भूत हँसी का उद्दाम हँसी जब 6 हाकों और क़हक़हों में मुखर होता है तो स्नायु संस्थान की सारी गाँठे खुल जाती है। तन-मन तनावहीनता प्रफुल्लता से स्फूर्त और प्रसन्न हो जाता है। किसी व्यक्ति को अथवा समूह को हँसाना या हँसा पाना आज के युग में एक श्रेयस कर्म है।
श्री हुल्लड़ जी अपनी रचनाओं में कहकरों के ऐसे फव्वारे पैदा करते हैं कि श्रोता या पाठक अपना पेट थाम कर बैठ जाते हैं। शरीर के सारे अवयव आन्दोलित हो जाते हैं आँखों में आवदाश्रु उमड़ आते है, तन मन विरग-विशुद्ध होकर स्वस्थ और प्रसन्न हो जाता है। हुल्लड़ जी जीवन धर्मी कला के इस रचनात्मक रंजन के सिद्धहस्त कलाकार हैं। केवल गुदगुदी पैदा करना या ठहाके लगवाना श्रेष्ठ कविता का लक्षण नहीं है। उसमें जीवन की किसी ऐसी मर्मानुभूति का होना आवश्यक है जो किसी व्यापक-जीवन-सत्व से परिचित करवाएँ। श्री हुल्लड़ जी के दोहे खूब हँसाते हैं किन्तु आपत्ति फलश्रुति में पाठक का श्रोता को एक ऐसे आत्म सत्व के सन्मुख खड़ा कर देते है जहाँ वह समस्या पर गम्भीर चिन्तन के लिए विवश हो जाता है। हुल्हड़ जी समसामयिक परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपों, विषमताओं और विकृतियों पर बेधक व्यंग्य के साथ हास्य भी उत्पन्न करते हैं। यह उनकी प्रस्तुति का कौशल है कि लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते हैं। उन्हीं के माध्यम से वे ऐसे प्रश्न भी खड़े कर देते हैं कि श्रोता या पाठक करुणा, उद्विग्नता, आक्रोश, ग्लानि, वितृष्णा जैसे भावों से उद्वेलित होकर विचार करने के लिए विवश हो जाता है।
श्री हुल्लड़ जी का अस्तित्व आस्था के कवि है। वे मनुष्य की भूमिका निमित्त से अधिक स्वीकार नहीं करते और ईश्वर को ही कर्ता होने का श्रेय देते हैं। उनका विश्वास है कि किसी दैवी प्रेरणा से कविताएँ अपने आप बन जाती हैं। श्रेष्ठ कार्य तो स्वत: स्फूर्त होता है। हुल्लड़ जी स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं।
भारत के कोने कोने में तो हुल्लड़ जी की रचनाएँ सुनी ही जाती हैं। अमेरिका, कनाडा़, आस्ट्रेलिया, बैकांग, हाँगकाँग तथा इंग्लैण्ड जैसे देशों में भी उन्हें मुक्त कण्ठ से सराहा गया है हास्य व्यंग्य लेखन की विशिष्टताओं और अन्तराष्ट्रीय लोकप्रियता के कारण ही हुलड़ जी को काका हाथरसी पुरस्कार, उज्जैन का टेपा पुरस्कार और इक्कीस हज़ार के अट्टाहस शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया है। ये उपलब्धियाँ हुल्लड़ जी के व्यक्तित्व की विलक्षणता को प्रमाणित करती हैं। हास्य मानव जीवन के व्यक्तिव्य की दुर्लभ उपलब्धि है। आज के आपाधापी और तनाव भरे जीवन में कुण्ठाग्रस्त मानसिकता को हँसने के अवसर उपलब्ध ही नहीं हैं, जो लोग हँसने का अभिनय करते हैं उसका संबंध तन-मन से नहीं होता। अन्तर्मन से उद्भूत हँसी का उद्दाम हँसी जब 6 हाकों और क़हक़हों में मुखर होता है तो स्नायु संस्थान की सारी गाँठे खुल जाती है। तन-मन तनावहीनता प्रफुल्लता से स्फूर्त और प्रसन्न हो जाता है। किसी व्यक्ति को अथवा समूह को हँसाना या हँसा पाना आज के युग में एक श्रेयस कर्म है।
श्री हुल्लड़ जी अपनी रचनाओं में कहकरों के ऐसे फव्वारे पैदा करते हैं कि श्रोता या पाठक अपना पेट थाम कर बैठ जाते हैं। शरीर के सारे अवयव आन्दोलित हो जाते हैं आँखों में आवदाश्रु उमड़ आते है, तन मन विरग-विशुद्ध होकर स्वस्थ और प्रसन्न हो जाता है। हुल्लड़ जी जीवन धर्मी कला के इस रचनात्मक रंजन के सिद्धहस्त कलाकार हैं। केवल गुदगुदी पैदा करना या ठहाके लगवाना श्रेष्ठ कविता का लक्षण नहीं है। उसमें जीवन की किसी ऐसी मर्मानुभूति का होना आवश्यक है जो किसी व्यापक-जीवन-सत्व से परिचित करवाएँ। श्री हुल्लड़ जी के दोहे खूब हँसाते हैं किन्तु आपत्ति फलश्रुति में पाठक का श्रोता को एक ऐसे आत्म सत्व के सन्मुख खड़ा कर देते है जहाँ वह समस्या पर गम्भीर चिन्तन के लिए विवश हो जाता है। हुल्हड़ जी समसामयिक परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपों, विषमताओं और विकृतियों पर बेधक व्यंग्य के साथ हास्य भी उत्पन्न करते हैं। यह उनकी प्रस्तुति का कौशल है कि लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते हैं। उन्हीं के माध्यम से वे ऐसे प्रश्न भी खड़े कर देते हैं कि श्रोता या पाठक करुणा, उद्विग्नता, आक्रोश, ग्लानि, वितृष्णा जैसे भावों से उद्वेलित होकर विचार करने के लिए विवश हो जाता है।
श्री हुल्लड़ जी का अस्तित्व आस्था के कवि है। वे मनुष्य की भूमिका निमित्त से अधिक स्वीकार नहीं करते और ईश्वर को ही कर्ता होने का श्रेय देते हैं। उनका विश्वास है कि किसी दैवी प्रेरणा से कविताएँ अपने आप बन जाती हैं। श्रेष्ठ कार्य तो स्वत: स्फूर्त होता है। हुल्लड़ जी स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं।
एक पंक्ति भी लिख सकूँ नहीं मेरी औक़ात।
हुई शारदा कृपा से, दोहो की बरसात।।
हुई शारदा कृपा से, दोहो की बरसात।।
पराशक्ति में यह विश्वास जहाँ कवि की विनम्रता को पुष्ट करता है वहीं
सृजन-संवेदना की प्रौढ़ता को भी रेखांकित करता है। इस संग्रह में संकलित
दोहे अपने सन्दर्भों और अभिप्रायों में स्वतन्त्र होने पर भी कवि की
मूवनिष्ठा, मानवीय, संशक्ति, आस्था, विश्वास, दायित्व, चेतना जैसे गुणों
में समृद्ध हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अनुभवों का निचोड़ इन दोहों
में अभिव्यक्त हुआ है। जीवन के बहुत गम्भीर प्रश्नों पर भी व्यावहारिक
समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यथा
सभी दुखों से मुक्ति का, निकला नहीं निचोड़
जिन मसलों का हल नहीं, उन्हें समय पर छोड़
जिन मसलों का हल नहीं, उन्हें समय पर छोड़
मेरा दृढ़ विश्वास है कि श्रीहुल्लड़ मुरादाबादी के अन्य काव्य संकलनों की
भाँति हुल्लड़ सतसई का भी हिन्दी जगत में स्वागत होगा इतना ही नहीं
संप्रेष्य वस्तु की गम्भीरता के कारण पाठक वर्ग इसके प्रति भी उत्कृष्ट
होगा।
डॉ. रामजी तिवारी
हुल्लड़ सतसई
1
काव्य रत्न के मूल्य का आंक न पाये सार
जीवन भर करते रहे, हम पत्थर से प्यार
जीवन भर करते रहे, हम पत्थर से प्यार
2
बाहर जाना जब लिखा, तभी जाएँगे आप
कोशिश करके देख ले, चाहे मेरे बाप
कोशिश करके देख ले, चाहे मेरे बाप
3
जीवन भर उसका गणित, न समझा इन्सान
कब वह घर पर ही रखे, कब करदे गतिवान
कब वह घर पर ही रखे, कब करदे गतिवान
4
कवि सम्मेलन ना मिले, इसमें है कुछ राज़
यह मत समझो हो गया, रह हमसे नाराज़
यह मत समझो हो गया, रह हमसे नाराज़
5
छत जितना मिलना लिखा, उतना ही मिल पाय
चाहे तू घर पर रहे चाहे बाहर जाय
चाहे तू घर पर रहे चाहे बाहर जाय
6
कर्मों का फल दे रहा, विधि का अटल विधान
हाँ से तुम खुश हुए, ना से है भगवान
हाँ से तुम खुश हुए, ना से है भगवान
7
सोच सोच कर स्वयं को, क्यूँ करता हैरान
कब क्या देता है तुझे ये जाने भगवान
कब क्या देता है तुझे ये जाने भगवान
8
जो देता है ईश्वर उसमें रख संतोष
लालच में पड़कर कभी, खो मत देना होश
लालच में पड़कर कभी, खो मत देना होश
9
हुल्लड़ इस संसार में, भले आदमी रोय
मन चाहा होता नहीं, रब चाहा ही होय
मन चाहा होता नहीं, रब चाहा ही होय
10
हम सब मेढ़क कुएँ के सागर से अनजान
मैं तुमको कहूँ महान, तू कह मुझे महान
मैं तुमको कहूँ महान, तू कह मुझे महान
11
जो मुर्दे की जेब से लेते नोट चुराय
इन लोगों की आँख में, आँसू कभी न आय
इन लोगों की आँख में, आँसू कभी न आय
12
सुख दुख तो मेहमान हैं जीवन एक सराय
जब सुख ही न रह सका, दु:ख कैसे टिक पाय
जब सुख ही न रह सका, दु:ख कैसे टिक पाय
13
दुनिया तो अब भी वही, तेरी नज़र खराब
अपने मन से पूछ ले, मिल जाएगा जवाब
अपने मन से पूछ ले, मिल जाएगा जवाब
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लोगों की राय
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